किराए की साईकिल

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बचपन (1980-90) में जब हम लोग जबलपुर की रिज रोड कॉलोनी में रहते थे तब किराए की छोटी साईकिल लेते थे, जो अधिकांश लाल रंग की होती थी जिसमें पीछे कैरियर नहीं होता था जिससे आप किसी को डबल न बैठाकर घूमे। किराया शायद 25-50 पैसे प्रति घंटा होता था, किराया पहले लगता था और दुकानदार नाम पता नोट कर लेता था।
किराये के नियम कड़े होते थे..
जैसे की पंचर होने पर सुधारने के पैसे, टूट फूट होने पर आप की जिम्मेदारी।
खैर ! हम खटारा छोटी सी किराए की साईकिल पर सवार उन गलियों के युवराज होते थे, पूरी ताकत से पैड़ल मारते, कभी हाथ छोड़कर चलाते और बैलेंस करते, तो कभी गिरकर उठते और फिर चल देते।
अपनी गली में आकर सारे दोस्त, बारी बारी से साईकिल चलाने मांगते, किराये की टाइम की लिमिट न निकल जाए, इसलिए तीन-चार बार साइकिल लेकर दूकान के सामने से निकलते। तब किराए पर साइकिल लेना ही अपनी रईसी होती थी।
          ख़ैर जिंदगी की साइकिल (गाड़ी) तो अब भी चल रही है। किराए की साइकिल की जगह आज अपनी खुद की गाड़ी है लेकिन फिर भी वो दौर वो आनंद नही है।
          जवानी से कहीं अच्छा तो वो खूबसूरत बचपन ही हुआ करता था ..जिसमें दुश्मनी की जगह सिर्फ एक कट्टी हुआ करती थी और सिर्फ दो उंगलिया जुडने से दोस्ती फिर शुरू हो जाया करती थी।
          अंततः बचपन एक बार निकल जाने पर सिर्फ यादें ही शेष रह जाती है और याद आ आकर सताती रहती है।
          आज के बच्चो का बचपन तो मोबाईल चुरा ले गया है। अब तो न वो दौर रहा न वो बच्चे न ही वो खेल।
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