क्योंकि मै पुरुष हूँ पी जाता हूँ अश्रुधारा को
भीतर ही कहीं, छलक गयीं आँखें कभी
तो आँच आएगी पुरुषत्व पर
करता हूँ कल्पना एक जीवन की,
माँ के आँचल की हो छाँव जहाँ
पिता की लाठी बन जाऊ
फेर लूँ हाथ बहन के माथे पर
तो संग अर्धांगिनी हो संसार जहाँ
किन्तु बट जाता हूँ अनेक टुकड़ों में
हो जाता हूँ असमर्थ सींचने में रक्त सम्बन्ध
इन टुकड़ों से पाता हूँ एक हृदय अपने भीतर भी
ना की कहीं कोई पाषाण खड़ा हूँ शान्त धीर गम्भीर
किन्तु विचलित मन से पाता हूँ स्वयं को निराधार
क्योंकि मै पुरुष हूँ पी जाना है अश्रुधारा को भीतर ही कहीं ।
-साभार