वामपंथियों को ये ध्यान रखना चाहिए कि लोगों को अभिलेखागार में सीढ़ियाँ चढ़ कर पन्ने नहीं खँगालने होते कि कहाँ क्या हो रहा है। जघन्य घटनाएँ हर घंटे घटती हैं। अगर यह गिरोह हाथरस पर चिल्लाता है, क्योंकि वहाँ इनके सारे समीकरण सटीक बैठते हैं, तो उसे याद रहना चाहिए दूसरे समीकरण भी हैं।
दिन भर लोगों ने कॉन्ग्रेस शासित प्रदेशों की घटनाएँ गिना दीं। दलित की ही बेटी वहाँ भी थी। ‘भारत की बेटी’ ही थी। हल्ला नहीं हुआ। शाम होते-होते बलरामपुर में एक दलित के गैंगरेप और हत्या की खबर आ गई। हत्यारे मुस्लिम हैं, हल्ला नहीं होगा। कल भी आसिफ ने नेहा की हत्या कर दी थी।
बात यह नहीं है कि इधर वाले फलाने मजहब के अपराधियों की बातें करते हैं, बात यह है कि ऐसा करने को मजबूर किसने किया? ऐसा क्यों होता है कि प्रभावशाली मीडिया संस्थान नाम लिखने से कतराता है, होमपेज पर जगह नहीं देता।
इसलिए, हाथरस की घटना के ‘जवाब’ में लोग आसिफ-नेहा की बाते करेंगे ही।
और, यह भी नहीं है कि गैर वामपंथी समूह किसी खास मजहब के अपराधी होने पर हल्ला करने लगता है। नहीं, वो प्रतिक्रियावश तुम्हें यह दिखाता है कि तुम जो अजेंडा ठेल रहे हो, वो नहीं चलेगा क्योंकि तुम फलाँ जगह पर चुप थे।
हम सत्ताधीशों को नहीं देखते, वामी-कामी-भीम-इस्लामी देखते हैं।
कितनों में यह संवेदना है कि वो घात-प्रतिघात छोड़ कर समस्या पर लिखें, परिस्थितियों को समझें, दूसरें पक्ष को भी सुनने की क्षमता रखें?
एक पक्ष को लगता है कि हर लड़की का गैंगरेप हो रहा है, दूसरे में कुछ को लगता है कि ‘हिन्दुओं को फँसाया जा रहा है’। दोनों ही मूर्खतापूर्ण बातें हैं।
कानून-व्यवस्था सही नहीं है, अपराधियों में डर नहीं है, और समझदारी तो बिल्कुल नहीं। ऐसे में ये नैरेटिव युद्ध छेड़ कर, एक सामाजिक अपराध को राजनैतिक रूप दे कर वामपंथियों ने क्या पा लिया?
यही कि बाकी और जगह भी बलात्कार हो रहे हैं? नैरेटिव-नैरेटिव खेलना है तो खेलो इसी तरह!
यही ह#मी वामपंथी हर मुद्दे को इतना घसीट लेते हैं कि अगले हर बार लोगों को वास्तविक मुद्दों पर शक होने लगता है। ये दो*ले इतना ह* देते हैं कि पूरा प्लेटफ़ॉर्म सड़ाँध से भर जाता है।
इस सब में वो लड़कियाँ कहीं खो जाती हैं जिनका नाम लेकर ये रोने की एक्टिंग करते हैं।