आजकल बहुत से लोग सोशल मीडिया पर रिलायंस मॉल में बिकने वाली तमाम चीजों का के मूल्य का फोटो खींचकर पोस्ट करते हैं और लिखते हैं यह देखो 1 किलो गन्ना कितने रुपए में बिक रहा है, 1 किलो आलू कितने रुपए में बिक रहा है।
अरे भाई कभी यह विचार किया कि कर्नाटक में काफ़ी उगाने वाले किसानों से मल्टीनेशनल कंपनी नेस्ले कितने रुपए किलो कॉफी बींस खरीदती है और उसे कितने रुपए किलो बेचती है ??
कभी यह सोचा की स्टारबक्स में एक कप कॉफी ₹200 की क्यों हो जाती है जबकि उसमें सिर्फ कुछ ग्राम ही काफी होता है ??
कभी इस पर दुख नहीं जताया कि किसानों से मक्का खरीद कर उसमें कुछ चॉकलेट फ्लेवर मिलाकर डिब्बों में पैक कर बेचने वाली अमेरिका की कंपनी केलॉग्स कितने प्रतिशत मुनाफा कमाती है ??
कभी यह सोचा कि सिर्फ पानी और थोड़ी सी कार्बन डाइऑक्साइड और थोड़ी सी चीनी डालकर बोतल में पैक करके कोका कोला कई दशक से हमें ₹10 में बेच रही है जबकि वह पानी भी हमारा वह चीनी भी हमारी है।
कभी भारत के आलू चिप्स उद्योग पर भारतीय कंपनियों का दबदबा हुआ करता था हर घर में महिलाएं चिप्स बनाया करती थी लेकिन जब मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे तब आर्थिक उदारीकरण पर दस्तखत करने के बाद भारत के बाजार मल्टीनेशनल कंपनियों के लिए खोल दिए गए और अंकल चिप्स जो एक भारतीय की कंपनी थी वह बिकी धीरे-धीरे तमाम भारतीय चिप्स कंपनियां गायब हो गई और भारत के आलू चिप्स बाजार पर पेप्सीको का और हिंदुस्तान लीवर का कब्जा हो गया ।
मात्र कुछ ग्राम चिप्स अब ₹10 में मिलने लगा कभी तुमने उसका हिसाब लगाया ??
दरअसल तुम्हारी औकात यह नहीं है कि तुम नेस्ले को, पेप्सीको, कोका कोला को, स्टारबक्स को गाली दे सको, क्योंकि तुम एक विदेशी दलाल हो।
तुम्हारी आंखों में सिर्फ भारतीय उद्योगपति टाटा, बिरला, अंबानी, अडानी, रामदेव ही आंखों में रेत की तरह चुभ रहे हैं।
तुम्हें केवल सिर्फ इनका मुनाफा नजर आता है। तुम्हें यह नजर नहीं आता की इन कंपनियों ने कितने भारतीयों को रोजगार दिया है और यह कंपनियां अपने मुनाफे का कितना प्रतिशत सोशल रिस्पांसिबिलिटी पर खर्च कर रही है और यह कंपनियां भारत के जीडीपी में कितना योगदान दे रही हैं।
अमेरिका से आकर Amazon वाला कमाकर ले जाये, चीन से आकर Redmi, Oppo, Vivo वाला कमाकर ले जाये, England से आकर वोडाफोन वाला कमाकर ले जाये, पर यहाँ रहकर अपना पैसा लगाकर, अपने लोगों को रोजगार देने वाला अंबानी, अडानी या बाबा रामदेव ना कमाने पायें??
गांधी को स्वदेशी से प्रेम था. तथाकथित खुद को गांधीवादी कहने वाले फिर भी ठोंग करते है कि हम गाँधी के अनुयायी है?
नेस्ले इंडिया अच्छा है क्योंकि उसके विदेशी मालिक को हम नही जानते। प्रॉक्टर एन्ड गैंबल अच्छा है क्योंकि हम उसके विदेशी मालिक को नही जानते। कोको कोला, पेप्सी अच्छे है क्योंकि हम उनके मालिकों को भी नही जानते हैं।
वोडाफोन अच्छा है क्योंकि उसके सेठ को भी नही जानते। रेडमी, वीवो, सैमसंग, नोकिया, आई फोन अच्छे हैं क्योंकि उनके मालिकों को भी नही जानते हैं।
रामदेव चोर है, मुकेश अंबानी चोर है, गौतम अडानी चोर है, टाटा, बिरला चोर हैं?
नई संसद का ठेका टाटा को कैसे मिल गया ? सोलर का ठेका चीन की जगह अडानी को कैसे मिल गया ? भारत के सब व्यापारी तो चोर होते हैं!
है न? क्योंकि ये हमारे अपने देश के हैं और हमारे यहां का कोई बिजनेसमैन बड़ा आदमी कैसे हो सकता है? कैसे बड़ी बड़ी विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को टक्कर दे सकता है?
यह दृष्टिदोष नही है? यह गुणसूत्र का मामला भी हो सकता है। इसे आसानी से समझाया भी नही जा सकता है क्योंकि वामपंथ ने इसे हमारी मानसिकता में जो घुसा रखा है।
हमारी चेतना से आत्मगौरव विस्मृत करने में कितना पुरुषार्थ लगाया है लेफ्ट लिब्रल्स ने इसकी हमें कल्पना तक नही है।
तभी तो हम सोच भी नही सकते है कि कोई अदार पूनावाला कोरोना की वैक्सीन बना सकता है ? वेंटिलेटर महेंद्रा एन्ड महेंद्रा भी बना सकता है?
कोरोना में तो करोडों की मौतें होनी थी न? क्या था? हमारे पास न पीपीई किट, न एन 95 मास्क और न अन्य संसाधन!
सब कुछ तो विदेश से ही आना था, फिर इस भारत ने 150 देशों तक कैसे कार्गो भर भर के दवाएं, मास्क, पीपीई किट व अन्य साजों सामान सहायता में भिजवा दिए?
अरे ये कैसे हो सकता है कि विश्व के 190 देश भारत के सीरम इंस्टीट्यूट की ओर टकटकी लगाए बैठे हैं ?
अरे सीरम के अदार पूनावाला को बिल गेट्स ने वेक्सीन के लिए 300 मिलियन डॉलर, हां…हां 22.5 अरब रुपया कैसे दे दिया? और पूनावाला ने स्वयं 19 अरब इस टीके पर खर्च कैसे कर दिए?
अरे, पूनावाला तो मोदी का दोस्त है! मोदी उसकी फेक्ट्री में गए क्यों थे..यह अब समझ आया…जरूर कोई गड़बड़ है।
इस इकोसिस्टम को समझिए, भारत अब लाचार, दूसरे देशों की ओर हाथ फैलाने वाला देश नही रहा है।
नया भारत है ये। समस्याओं को टालता नही है, उनसे भागता नहीं है। अब उनका डटकर सामना करता है। आपदा को अवसर में बदलता है।
आत्मनिर्भर भारत कुछ लोगों को मजाक लगता है न? उड़ाइये मजाक, बजाइये ढपली, लगाइए नारे भारत की बर्बादी तक जंग के…मांगिये आजादी…काटिये चिकन नेक…मनाइए बरसी…अफजल गुरू की.
धिक्कार है ऐसी सोच पर जो स्वदेशी, मेक इन इंडिया, मेड इन इंडिया आत्मनिर्भर भारत को बढ़ावा देने की बजाय देश को विदेशी कम्पनियों का गुलाम बनाने पर तुले हैं। जो लोग स्वदेशी उद्योगपतियों की खिलाफत कर रहे हैं उनकी सोच को लकवा मार गया है और ऐसे लोग अपनी आने वाली पीढ़ी को विदेशी कम्पनियों का गुलाम बना देना चाहते हैं।