एक वो दौर था जब पति अपनी भाभी को आवाज़ लगाकर अपने आने की ख़बर पत्नी को देता था और पत्नी की छनकती पायल और खनकते कंगन बड़े उतावलेपन के साथ पति का स्वागत करते थे।
बाऊजी की बातों का, हां बाऊजी, जी बाऊजी के अलावा जवाब नहीं होता था। लेकिन अब रिश्तों का केवल नाम ही रह गया है। क्योंकि अब तो बाबूजी को जीते जी डैड (dead) बना दिया है इस पाश्चात्य संस्कृति ने।
दादू के कंधे मानो पोते-पोतियों के लिए ही आरक्षित होते थे और काकाजी ही भतीजों के असली दोस्त हुआ करते थे। लेकिन अफसोस कि वही दादू आज वृद्धाश्रम की पहचान हैं और काकाजी बस रिश्तेदारों की सूची का एक नाम हैं।
बड़े पापा सभी का बराबर ख़्याल रखते थे। अपने बेटे के लिए जो खिलौना ख़रीदा वैसा ही खिलौना परिवार के सभी बच्चों के लिए लेकर आते थे।
ताऊजी आज़ सिर्फ पहचान रह गए और छोटे बच्चे स्मार्टफोन में उलझकर पता नहीं कब जवान हो गए।
दादीजी जब मक्खन बनाती थी तो बेटों को भले ही छांछ दे, पर मक्खन तो वो केवल पोते-पोतियों में ही बांटती थी। अब तो दादी के मक्खन ने पोतों की आस ही छोड़ दी क्योंकि पोतों ने अब अपनी राह ही अलग मोड़ दी।
रक्षा बंधन पर बुआ-फूफाजी आते थे तो घर में ही नहीं पूरे मोहल्ले में फूफाजी को चाय-नाश्ते पर बुलाते थे। अब तो बुआजी बस दादा-दादी के बीमार होने पर ही आती हैं। किसी और को उनसे मतलब नहीं रहा इसलिए चुपचाप नयन नीर बहाकर चली जाती हैं।
पाश्चात्य संस्कृति (Western Culture) की नकल में हमने अपनी भारतीय संस्कृति को ही भुला दिया। अंग्रेजी ने अपना स्वांग रचा दिया, शिक्षा के चक्कर में हमने अपने संस्कारों को ही गंवा दिया।
कहा जाता था कि एक बच्चे की प्रथम पाठशाला उसका परिवार व उसकी पहली शिक्षक उसकी मां होती थी। आज़ जब परिवार ही नहीं रहे तो पहली शिक्षक का क्या काम ?
शायद मेरे इन शब्दों का आज की इस उपभोक्तावादी संस्कृति (Consumer Culture) में कोई महत्व ना हो। क्योंकि आज के इस Consumer Culture में हर रिश्ता सिर्फ Give & Take पर ही आधारित है। लेकिन हो सके तो एक कोशिश जरूर करना इस भीड़ में ख़ुद को पहचानने की और एक सवाल खुद से पूछने की-
“क्या हम जिंदा हैं, या बस जी रहे हैं?”
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