सिनेमा, क्रिकेट और राजनीति ही हमारे युवाओं के आकर्षण के केंद्र क्यों हैं?


एक बात मेरी समझ में कभी नहीं आई कि ये फिल्म अभिनेता (या अभिनेत्री ) ऐसा क्या करते हैं कि इनको एक फिल्म के लिए 50 करोड़ या 100 करोड़ रुपये मिलते हैं। सुशांत सिंह की मृत्यु के बाद भी यह चर्चा चली थी कि जब वह इंजीनियरिंग का टाॅपर था तो फिर उसने फिल्म का क्षेत्र क्यों चुना था ?
जिस देश में शीर्षस्थ वैज्ञानिकों, डाक्टरों, इंजीनियरों, प्राध्यापकों और अधिकारियों को प्रतिवर्ष 10 लाख से 20 लाख रुपये मिलता हो, जिस देश के राष्ट्रपति की कमाई प्रतिवर्ष 1 करोड़ से कम ही हो, उस देश में एक फिल्म अभिनेता प्रतिवर्ष 10 करोड़ से 100 करोड़ रुपये तक कमा लेता है। आखिर ऐसा क्या काम करता है वह? आखिर वह ऐसा क्या करता है कि उसकी कमाई एक शीर्षस्थ वैज्ञानिक से सैकड़ों गुना अधिक होती है ?



आज तीन क्षेत्रों ने सबको मोह रखा है सिनेमा , क्रिकेट और राजनीति। इन तीनों क्षेत्रों से सम्बन्धित लोगों की कमाई और प्रतिष्ठा सीमा से अधिक है। ये क्षेत्र आधुनिक युवाओं के आदर्श हैं, जबकि वर्तमान में इनकी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लगे हैं। स्मरणीय है कि विश्वसनीयता के अभाव में चीजें प्रासंगिक नहीं रहतीं और जब चीजें महँगी हों, अविश्वसनीय हों, अप्रासंगिक हों तो वह व्यर्थ ही है।
सोचिए कि यदि सुशांत या कोई अन्य युवक या युवती आज इन क्षेत्रों की ओर आकर्षित होते हैं, तो क्या यह बिल्कुल अस्वाभाविक है? मेरे विचार से तो नहीं…   कोई भी सामान्य व्यक्ति धन, लोकप्रियता और चकाचौंध से प्रभावित हो ही जाता है।


वालीवुड में ड्रग्स या वेश्यावृत्ति, क्रिकेट में मैच फिक्सिंग, और राजनीति में गुंडागर्दी इन सबके पीछे धन मुख्य कारक है और यह धन हम ही उन तक पहुँचाते हैं। हम ही अपना धन फूँककर अपनी हानि कर रहे हैं, यह मूर्खता की पराकाष्ठा है।
70-80 वर्ष पहले तक प्रसिद्ध अभिनेताओं को सामान्य वेतन मिला करता था। 30-40 वर्ष पहले तक भी इनकी कमाई बहुत अधिक नहीं थी। 30-40 वर्ष पहले तक क्रिकेटरों के भी भाव नीचे ही थे। 30-40 वर्ष पहले तक राजनीति इतनी दूषित नहीं थी। धीरे-धीरे ये हमें लूटने में लगे रहे और हम शौक से खुशी-खुशी लुटते रहे। हम इन माफियाओं के चंगुल में फँसते रहे और अपने बच्चों का, अपने देश का भविष्य बर्बाद करते रहे।



50 वर्ष पहले तक भी फिल्में इतनी अश्लील नहीं बनती थीं, क्रिकेटर और नेता इतने अहंकारी नहीं थे, आज तो ये भगवान बन बैठे हैं। अब आवश्यकता है इनको सिर पर से उठाकर पटक देने का ताकि ये अपनी हैसियत समझें।
वियतनाम के राष्ट्रपति हो-ची-मिन्ह एक बार भारत आए थे। भारतीय मंत्रियों के साथ हुई मीटिंग में उन्होंने पूछा – “आपलोग क्या करते हैं ?”
इन लोगों ने कहा – “हमलोग राजनीति करते हैं।”
उन्होंने फिर पूछा – “राजनीति तो करते हैं, लेकिन इसके अलावा क्या करते हैं?”
इन लोगों ने फिर कहा -“हमलोग राजनीति करते हैं।”
हो-ची मिन्ह बोले – “राजनीति तो मैं भी करता हूँ, लेकिन मैं किसान हूँ, खेती करता हूँ, खेती से मेरी आजीविका चलती है। सुबह-शाम मैं अपने खेतों में काम करता हूँ। दिन में राष्ट्रपति के रूप में देश के लिए अपना दायित्व निभाता हूँ।”


स्पष्ट है कि भारतीय नेताओं के पास इसका कोई उत्तर न था। बाद में एक सर्वेक्षण से पता चला कि भारत में 6 लाख से अधिक लोगों की आजीविका राजनीति है, आज यह संख्या करोड़ों में है.
कुछ महीनों पहले ही जब कोरोना से यूरोप तबाह हो रहा था, डाक्टरों को महीनों से अवकाश नहीं मिल रहा था, पुर्तगाल के एक डाॅक्टरनी ने खीजकर कहा था, रोनाल्डो के पास जाओ न, जिसे तुम करोड़ों डाॅलर फुटबॉल मे देते हो, मैं तो कुछ हजार डाॅलर पाती हूँ।”



जिस देश में युवा छात्रों के आदर्श वैज्ञानिक, शोधार्थी, शिक्षाशास्त्री आदि न होकर उपरोक्त लोग होंगे, उनकी स्वयं की आर्थिक उन्नति भले ही हो जाए, देश उन्नति नहीं करेगा। 
जिस देश में अनावश्यक और अप्रासंगिक क्षेत्रों का वर्चस्व बढ़ता रहेगा, देश की समुचित प्रगति नहीं होगी। धीरे-धीरे देश में भ्रष्टाचारियोंं, देशद्रोहियों की संख्या ही बढ़ती रहेगी, कर्त्तव्यनिष्ठ लोग हाशिये पर चले जाएँगे और राष्ट्रवादी कठिन जीवन जीने को अभिशप्त हो जायेगा.


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