स्वाद लिया केसर दूध, कुल्हड़ मलैया का। सहेलियों ने खूब कहा था कि वाराणसी से बनारसी साड़ी की शॉपिंग करके आना । अनगिनत साड़ी दुकानों के सामने गुजरते हुए मैं सोच रही थी कि साड़ी खरीदने में बहुत समय लगेगा। जितना समय बनारस में हूँ ज्यादा से ज्यादा वक्त घाट किनारे गंगा जी के बहाव को खुद के भीतर बहता महसूस करूँ तो यात्रा अधिक सार्थक हो।
मणिकर्णिका के घाट पर अनवरत जलते शव, घाट पर बैठे पंडे, दूर-दूर के शहरों से आए लोगों से गोलोक सिधारे उनके परिजनो के लिए अंतिम पूजन करवा रहे थे। सर मुंडाए लोग पालथी मोढ़, सामने जमीन पर फूल-पान, पूजन-सामग्री धरे, हाथ जोड़े उदास बैठे जाने क्या सोचते होंगे ? जाने वाले से उनका क्या रिश्ता होगा जिनके मोक्ष की चाह में वो लम्बा सफर करके मणिकर्णिका घाट पर मंत्रोचार कर रहे है ।
बनारस में अस्सी घाट हो, हरिचन्द्र या मणिकर्णिका….ये घाट भारत की संस्कृति, कला, तप, योग, कर्मकांड, ज्ञान, आस्था के विहंगम और विराट रूप का दर्शन कराते है।
बनारसी साड़ी की असंख्य चमचमाती दुकानों के मोहजाल में ना फँसकर मैंने गंगा जी के किनारे बसे दुनिया के सबसे प्राचीन नगरी में से एक को पैदल ही नापने का निर्णय लिया। घाट की ऊँची-ऊँची सीढ़ियों से चढ़ते-उतरते हुए भीड़ में भीड़ का हिस्सा हो गयी मैं, नर मुंडों के बीच महज एक संख्या बन खो गयी मैं, बून्द ना होकर धार में अस्तित्वहीन घुल गयी मैं।
गंगा जी के किनारे-किनारे दिखे बाँसुरी बजाते वादक, साँप के टोकरे लिए सपेरे। आलू-पूरी की दुकानों की लंबी कतार नहाकते हुए बढ़ती गयी। कही कोई चित्रकार घाट की तस्वीरें बना रहा था तो कही पूजा के फूलों की टोकरी बेचते बच्चें लोगों के पीछा कर रहे थे।
नाव पर खड़े नाविक तट से गुजरते लोगों को आवाज़ देते है -100 रुपये में गंगा विहार कर लीजिये। नाव में बैठकर जब जरा दूरी से घाटों की तरफ देखों तो मन अजब सा खाली होता है। आँखों के सामने से धीरे-धीरे किनारे -किनारे बहने लगती है एक लबालब दुनिया। धू-धू लपटे उठाते शव, शवों से निकालकर बहाए गए नए गेरुवे कपड़े तैरते उफनते जा रहे होते है, घाटों पर चलता रंगीन कारोबार, अनगिनत छोटे-बड़े मंदिर, दाह संस्कार के लिए बिकने रखे लकड़ियों के ऊँचे गठ्ठर और पूजन सामग्री, प्रसाद की दुकानें, पीतल की भगवान की मूर्तियाँ सजी थी। इस सबसे अछूते थोड़ी दूर में सेल्फी लेते लोग, गंगा आरती में सामने की कतार में बैठने की होड़, रेहड़ी में माला-बाला, चूड़ी-आलता, टिक्की बिंदी खरीदती युवतियाँ, खिलौनों के लिए मचलते बच्चे और लगातार शवयात्रा के गूंजते स्वर “राम नाम सत्य” है। गंगा की धार में बहते हुए भी घाटों से नाव तक आती रहती है घण्टों और भजनों की स्वरलहरियाँ। अंधेरा घिरने पर साथ साथ चलती है लहरों पर रौशनी की थरथराती आकृतियाँ। पत्रा पढ़ते पंडित, इस कर्मकांडी संसार को फटी आंखों से निहारते विदेशी सैलानी और रेलम-पेलम श्रध्दालुओं की ये भीड़ किस दिशा जा रही समझ से परे। दीपदान के दीपक आजू- बाजू से बहते जाने किस लोक के अंधकार में विलीन हो जाते है।
सब कुछ एक साथ मेरी इन दो आँखों में कैसे समाए? मुंडन से लेकर दाह संस्कार, जीवन से लेकर मृत्यु तक का पूरा सफर इन घाटों पर है। हम इस दुनिया में क्यों आये है? इतने लोग मरकर कहाँ जा रहे है? भीतर से खाली कर देने वाला ये आदिम सवाल अचानक ही लुप्त होता है जब मल्लाह आवाज़ देता है ….चाय पीना है तो ले लीजिये।
अस्सी घाट पर वापस आकर नाव से उतरने के बाद बनारस की प्राचीन तंग और जरा चिपचिपी सी गलियों से गुजरते हुए मुख्य सड़क पर आ गयी तभी दिखा आधुनिकता से जगमग एक बुक स्टोर । बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी जैसे पुराने संस्थान वाले इस पारंपरिक शहर में “इंडिका बुक स्टोर” जो अस्सी घाट रोड में है के भीतर जाने का निर्णय लिया। साड़ियों का सारा बजट किताबों में खर्च करने का मन बन चुका था । कई किताबें जो बहुत दिनों से विश लिस्ट में थी आज खरीद लेनी है और खुद को तसल्ली दी कि साड़ी के पैसे यहाँ खर्च कर रही हूँ ।
बुक स्टोर के मालिक कम्प्यूटर में बैठे थे। सेल्स बॉय से उपन्यासों की अलमारियों के बारे में पता करके आगे बढ़ी। चार उपन्यास लेने के बाद अचानक “द्विवेदी विला” पर नज़र पड़ी। इसे देखकर मालूम हुआ कि मुझसे पहले मेरा उपन्यास बनारस पहुँचा चुका है । कितना सुकून होता है इतने बड़े नामों के बीच दो अक्षर का अपना छोटा नाम देखकर ।
किताबों की खरीददारी करके भारी बैग और भरे मन से बुक स्टोर से बाहर निकली। बनारस की भूल भुलैया वाली गलियों में फिर भीड़ बन गयी मैं। बनारसी लोगों के भौकाल, इनकी बतौलेबाज़ी, बनारसी पान, बनारसी साड़ी या कचौरी से भी बढ़कर संकरी गलियों और मोटी दीवारों वाले इस शहर में खोकर, खुद को पाने की यात्रा का मुसाफ़िर होना सुखद अनुभव है।
“बनारस शहर नही, भाव का नाम है”
साभार: मधु (writer at film writer’s association Mumbai)