हमारे देश में जितने भी महापुरुष हुए उन्होंने जो भी किया वो पूरे देश और सर्व समाज के लिए किया। जिसने जो भी उल्लेखनीय कार्य किया वो समाज के हर व्यक्ति के लिए किया। कभी किसी महापुरुष ने खुद को किसी जाति विशेष या संप्रदाय में बांटकर कोई कार्य नहीं किया। इसलिए सभी महापुरुष सर्व समाज के लिए पूज्यनीय और अनुकरणीय होने चाहिए लेकिन बड़े दुर्भाग्य की बात है कि अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए आजकल महापुरुषों को भी जाति धर्म और संप्रदाय में विभाजित किया जा रहा है और उनके ऊपर अपमानजनक टिप्पणियां की जा रही हैं।
संसद और विधानसभाओं में आजकल इस तरह की घटनाएं आम हो गई हैं। किसी एक वर्ग को खुश करने के लिए दूसरे वर्ग के महापुरुष को अपमानित करने का गंदा खेल चल रहा है, जो कि निकृष्टतम राजनीति की श्रेणी में आता है।
आजकल जाति धर्म की राजनीति करने वालों ने हमारे महापुरुषों तक को नहीं बक्शा। महापुरुषों के बारे में ऐसे ऐसे वाहियात बयान आजकल हमारे नेताओं द्वारा दिए जा रहे हैं जिन्हें सुनकर लगता है कि इस देश में भौंकने की जरूरत से ज्यादा आजादी मिली हुई है।
अभी पिछले दिनों वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप के दादा जिन्होंने युद्ध में 80 घाव सहे और एक आंख भी गंवाई ऐसे महापराक्रमी राणा सांगा को समाजवादी पार्टी के सांसद रामजी लाल सुमन द्वारा राज्यसभा में गद्दार बता दिया गया।
पढ़िए सपा सांसद रामजी लाल सुमन ने राज्यसभा में क्या कहा-
‘भाजपा वालों का तकियाकलाम हो गया है कि मुसलमानोंमें बाबर का डीएनए है… तो फिर हिंदुओं में किसका डीएनए है? बाबर को कौन लाया? बाबर को भारत में इब्राहीम लोदी को हराने के लिए राणा सांगा लाया था। मुसलमान बाबर की औलाद हैं, तो तुम (हिंदू) गद्दार राणा सांगा की औलाद हो। यह हिंदुस्तान में तय हो जाना चाहिए। बाबर की आलोचना करते हैं, राणा सांगा की नहीं।’
अब सपा सांसद रामजी लाल सुमन के इस बयान का ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित स्पष्टीकरण पढ़िए-
राणा सांगा और बाबर का सारा इतिहास खंगालने के बाद ये निष्कर्ष निकलता है-
राणा सांगा इब्राहिम लोदी समेत गुजरात और मालवा के सुलतानों को अपने दम पर पराजित कर चुके थे। इसलिए उनको किसी बाहरी की आवश्यकता नहीं थी।
बाबर बाबरनामा में लिखता है उस वक्त भारत में दो बड़े काफिर राजा है एक विजयनगर दूसरा राणा सांगा। इसका अर्थ संयम राणा सांगा उस वक्त बड़ी शक्ति थे जिनको किसी बाहरी की आवश्यकता नहीं थी।
बाबर बाबरनामा में लिखता है कि उसको भारत जीतने की इच्छा है पर कई बाधाएं है और भारत पर आक्रमण करना अभी उसके लिए प्रैक्टिकली संभव नहीं है। इसका अर्थ है इब्राहिम लोदी के खिलाफ राणा सांगा की जगह बाबर को किसी की सहायता की आवश्यकता थी न कि राणा सांगा को।
बाबरनामा सहित अन्य अफगान इतिहास सूत्र बताते है बाबर को इब्राहिम लोदी के खिलाफ आक्रमण करने को दौलत खान ने आमंत्रित किया था। इस आमंत्रण पर बाबर ने विचार किया होगा पर पहले ही स्पष्ट है उसके लिए भारत के अंदर आक्रमण करने की स्थिति नहीं थी इसलिए उसको किसी की आवश्यकता थी।।
राणा सांगा के पुरोहित की पांडुलिपि में बताया है बाबर ने राणा सांगा से इब्राहिम लोदी के खिलाफ सहायता मांगी थी। इसलिए इब्राहिम लोदी के खिलाफ राणा सांगा की जगह बाबर को राणा सांगा की आवश्यकता थी ये स्पष्ट हो जाता है। बाबर को राणा सांगा की आवश्यकता क्यों थी ये इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि राणा सांगा उस वक्त के एक शक्तिशाली राजा थे जो पहले ही कई सुलतानों सहित इब्राहिम लोदी को पराजित कर चुके थे। इसलिए बाबर को अच्छे से मालूम हो गया होगा कि अगर राणा सांगा उसकी सहायता कर देते है तो दिल्ली पर आक्रमण करना उसके लिए संभव हो जाएगा।
बाबरनामा में जिक्र आता है कि राणा सांगा ने अपना दूत भेज सहायता देने की बात मान ली थी। क्योंकि इब्राहिम लोदी को दिल्ली की गद्दी से हटाने की इच्छा तो राणा सांगा की भी थी। इसी बात को विरोधी राणा सांगा द्वारा बाबर को बुलाए जाने के प्रपंच के रूप में दुरूपयोग किया जाता है । पर राणा सांगा के पुरोहित की पांडुलिपि से स्पष्ट है राणा सांगा के सामंत ने राणा सांगा के इस फैसले का विरोध किया कि सांप को दूध पिलाने का कोई फायदा नहीं। राणा सांगा ने अपने सामंतों की बात मान ली और बाबर की सहायता को को अपनी सेना नहीं भेजी। इसी बात की खुन्नस के चलते बाद में बाबर और राणा सांगा के बीच युद्ध हुए।
मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर देने वाले ऐसे वीरों की तुलना मुगल लुटेरों और आक्रांताओं से की जा रही है।
मुगलों को महिमामंडित करने वालों से बस यही पूछना चाहता हूं कि यदि कोई लुटेरा आपके घर को लूटने आता है तो क्या आप उसका गुणगान करेंगे, उसको महिमामंडित करेंगे, उसे महान बताएंगे?
मुगल क्या थे और भारत में किस लिए आए थे ये सभी को पता है। फिर भी एक वर्ग विशेष को खुश करने के लिए आप उनको महान और पराक्रमी बता रहे हैं?
आजकल वोट की गंदी राजनीति के चक्कर में लुटेरों को महिममंडित करने और हमारे महापुरुषों को अपमानित करने का गंदा खेल चल रहा है।
औरंगजेब जिसने हमारे मंदिरों को लूटा, हमारे देवी देवताओं की मूर्तियों को तोड़ा, मंदिरों को मस्जिद का रूप देने का घिनौना काम किया, ऐसे लोगों को भी हमारे देश में महिमामंडित किया जा रहा है।
कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि द ग्रेट महाराणा प्रताप नहीं कहा जाता, द ग्रेट अकबर कहा जाता है।
हालात से समझौता न करते हुए, घास की रोटी खाकर भी मुगलों के बढ़ते कदम रोक मातृभूमि के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने वाले मां भारती के सच्चे सपूत महाराणा प्रताप ने मातृभूमि के लिए जो त्याग और बलिदान दिया क्या उसे भुलाया जा सकता है?
कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज तक हमारे देश में महाराणा प्रताप की जयंती पर सार्वजनिक अवकाश तक घोषित नहीं है।
देश का हर नागरिक आज ऋणी है हमारे इन महापुरुषों का। लेकिन वोट की गंदी राजनीति के चक्कर में इन महापुरुषों को भी अपमानित किया जा रहा है।
लुटेरों, आक्रांताओं को महिमामंडित करने वाले, उनको सही ठहराने वाले कैसे लोग हो सकते हैं, इसका आकलन आप लोग स्वयं करें। जिनके आदर्श लुटेरे हों वे कैसे लोग हो सकते हैं?
जो जिस प्रवृति का होता है, उसके आदर्श भी वैसे ही लोग होते हैं।
क्या ऐसा नहीं होना चाहिए कि देश के महापुरुषों को अपमानित करने, उनके खिलाफ अमर्यादित टिप्पणी करने पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज हो?
देशभक्त महापुरुषों को अपमानित करना भी देशद्रोह की श्रेणी में आना चाहिए। सरकार को ऐसा कठोर कानून बनाना चाहिए कि कोई भी व्यक्ति महापुरुषों के खिलाफ ऐसे अपमानजनक बयान देने की हिमाकत न कर सके।
भारतीय इतिहास के साथ जमकर छेड़छाड़ की गई है। इसकी वजह भी बहुत स्पष्ट है, जो भी आक्रांता आए उन्होंने भारतीय सभ्यता को पूरी तरह मिटा कर अपने महिमा मंडन को आगे रखा। उन्होंने अपनी भाषाओं में भारतीय ज्ञान और साहित्य का अनुवाद किया और मूल प्रतियों को और उन्हें जानने वालों को नष्ट करने का षड्यंत्र रचा। इस घिनौने साजिश का ही असर है कि आज भी बड़ी तादाद में हमारे देश में ही वो लोग मौजूद हैं, जो हमारे इतिहास और समृद्ध धरोहर पर ही प्रश्न चिह्न खड़े कर देते हैं। हमारा इतिहास मुगल या अंग्रेज नहीं हैं, हमारा इतिहास इनसे कहीं पुराना है। हमें किसी वॉस्कोडिगामा ने नहीं खोजा था, बल्कि इन लोगों ने अपने स्वार्थों के लिए हमें लूटा और हमारी संस्कृति को चुरा कर अपने विकास में उपयोग लाए।
भारत को पिछड़ा दिखाने की कोशिश के भी मूल में यही साजिश थी। दरअसल जब विज्ञान, सभ्यता, दर्शन शास्त्र, संपन्नता और जीव विज्ञान या आयुर्विज्ञान के चरम पर ये सनातन संस्कृति बैठी थी, तो इसके ज्ञान को इतिहास में अपने नाम से प्रचारित करने के लिए विदेशी आक्रांताओं ने इतिहास को नए सिरे से गढ़ना शुरू किया। कहते हैं नकल में भी अकल चाहिए। अरब या अंग्रेज लिखना तो जानते थे, लेकिन ज्ञान नहीं था। उन्होंने इतिहास के साथ जो तोड़-मरोड़ की, वो ज्यादा समय तक छिपी नहीं। हालांकि भारतीय राजनीति में कुछ इस तरह के समीकरण बन गए कि हमारे राजनैतिक दलों ने भी धर्म की भेंट चढ़ चुकी राजनीति के हवन कुंड में हमारे इतिहास की भी आहुति देने से परहेज नहीं किया।
हम अपने इतिहास से होने वाली जोड़-तोड़ को इसीलिए सहन करते रहते हैं क्योंकि हम असली इतिहास से वाकिफ ही नहीं हैं। हमें यह कह दिया जाता है कि वैदिक सभ्यता तो कल्पना है। ये भी कह दिया जाता है कि विज्ञान को लेकर हमारे समृद्ध इतिहास की जो बाते हैं वो कपोल कल्पनाएं हैं। हम रामायण महाभारत के कालखंड पर भी बहस करते दिख जाते हैं। यही वो साजिश थी, जो नालंदा या अन्य विश्वविद्यालयों को पूरी तरह नष्ट करते वक्त रची गई थी। स्मृतियों के जरिए आगे बढ़ी हमारी परंपरा ने बहुत कुछ बचा लिया, तो काफी कुछ खो भी दिया। मुगलों पुर्तगालियों या अंग्रेजों के हमलों से बहुत पहले भी हम एक बेहतरीन सभ्यता थे, आज भी हैं और आगे भी रहेंगे।